हाथ एवं शरीर की विशेष स्थिति को मुद्रा कहते हैं। पंच प्राण, चक्रों तथा कुंडलिनी शक्ति को जागृत करती हुई महत्वपूर्ण योग सिद्धियाँ, मुद्राएँ प्राप्त कराती हैं। इन मुद्राओं के अभ्यास में अन्नमय कोश (बाह्य शरीर), मनोमय कोश (मानसिक शरीर) एवं प्राणमय कोश (प्राण शरीर) तीनों का समन्वय होता है। आरंभ में शरीर में प्रसारित होनेवाली प्राण शक्ति को मन ग्रहण कर के उसका अनुभव करता है। इससे साधक धीरे-धीरे संपूर्ण आत्मसाक्षात्कार की ओर चल पड़ता है।
योग मुद्राएँ मुख्यतः 5 प्रकार की हैं।
1) हस्त मुद्राएँ –
ये ध्यान से संबंधित हैं। ये अनेक हैं। मगर मुख्य पाँच हैं :
(1) ज्ञानमुद्रा,
(2) चिन्मुद्रा, (
3) योनिमुद्रा,
(4) भैरव मुद्रा,
(5) हृदय मुद्रा |
इनमें हाथों की ऊँगलियों की विविध स्थितियाँ काम आती हैं |
2) मनो मुद्राएँ –
ये कुंडलिनी शक्ति के उद्दीपन के लिए काम आती हैं। मुख्य नौ हैं :
(1) सांभवी मुद्रा,
(2) नासिकाग्र दृष्टि मुद्रा,
(3) खेचरी मुद्रा,
(4) काकि मुद्रा,
(5) भुजंगिनी मुद्रा,
(6) भूवरी मुद्रा,
(7) आकाश मुद्रा,
(8) षण्मुखी मुद्रा,
(9) उन्मनी मुद्रा |
इनमें अॉख, नाक, कान, जीभ, होंठ इनकी स्थितियाँ काम आती हैं।
3) काया मुद्राएँ –
ये शरीर, श्वास और एकाग्रता के काम आती हैं। ये मुख्य छ: हैं।
(1) प्राणमुद्रा,
(2) विपरीत करणि मुद्रा,
(3) योगमुद्रा,
(4) पाषिणी मुद्रा,
(5) मंडुकी मुद्रा,
(6) ताड्गी मुद्रा |
इसमें कई योगासनों का उपयोग होता है।
4. बंध मुद्राएँ –
इसमें मुद्राएँ एवं बंध दोनों मिलाये जाते हैं। इनके अभ्यास से कुंडलिनी शक्ति की जागृति के लिए प्राणशक्ति तैयार होती है। इनमें तीन मुख्य हैं।
(1) महामुद्रा,
(2) महाभेद मुद्रा,
(3) महावेध मुद्रा |
इनमें विविध बंध उपयोग में आते हैं।
5. अधर मुद्राएँ –
इनमें शरीर के निचले शक्ति केन्द्रों से मस्तिष्क की ओर शवित पहुँचती है। मुख्य रूप से ये मुद्राएँ लैंगिक शक्ति को नियंत्रित करती हैं। इनमें तीन मुख्य हैं। (1) अश्वनी मुद्रा, (2) वज्रोली मुद्रा (केवल पुरुषों के लिए) (3) सहजोली मुद्रा (केवल स्त्रियों के लिए)
उपर्युक्त योग मुद्राएँ विशेषज्ञों के पथ-प्रदर्शन में नियमित अभ्यास कर साधक अद्भुत लाभ पा सकते हैं।