18. प्राणायाम


प्राण+आयाम = प्राणायाम | प्राण याने जीवशक्ति तथा आयाम याने विस्तार करना या नियंत्रित करना है। महर्षि पतंजलि के योग सूत्र के अनुसार, श्वासप्रश्वास को नियंत्रित कर रखना ही प्राणायाम है|

अंदर लेनेवाली हवा, श्वास और बाहर छोडो जानेवाली हवा, प्रश्वास कहलाती है| श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित करने और उन्हें क्रमबद्ध बनाने के द्वारा सूक्ष्म प्राण को भी काबू में रखा जा सकता है।

आदि में प्राण का संचार होता है| प्राणायाम के द्वारा उन सबको शक्ति प्राप्त होती है| उनकी रक्षा होती है| इसीलिए यह सूत्र प्रचलित हो गया कि प्राणायामेन युक्तेन सर्वप्रोग क्षय भवेत’ अर्थात प्राणायाम का अभ्यास नियमबद्धता से किया जाये तो सभी रोगों का निवारण हो जायेगा |

श्वास के 5 रूप हैं – प्राण, अपान, समान, उदान एवं व्यान। प्राण का स्थान है हृदय। अपान का स्थान है गुदा। समान का स्थान है नाभि | उदान का स्थान है कंठ। व्यान का स्थान है समस्त शरीर। श्वास क्रिया को प्राण, विसर्जन क्रिया को अपान, पाचन क्रिया को समान, कंठ की शक्ति तथा स्वर प्रसार की क्रिया को उदान तथा सभी क्रियाओं को व्यान सहयोग देते हैं।

श्वास को बाहर छोड़ने की क्रिया रेचक कहलाती है| श्वास को अंदर लेने की क्रिया पूरक कहलाती है| श्वास को भीतर ही रोकने की क्रिया अंतर कुंभक कहलाती है। श्वास को बाहर छोड़ कर बाहर ही उसे रोक रखने की क्रिया बाहय कुंभक कहलाती है। ये क्रियाएँ प्राणायाम के साधन हैं।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार, दोनों नासिका रंधों का प्रयोजन एक ही है। पर योगियों ने इन दोनों के बीच अंतर जान लिया। उनके शोध कार्य के अनुसार दायें नासिका रंध्र से निकलनेवाली हवा में थोड़ी सी उष्णता रहती है। इसलिए उन्होंने इसे सूर्य नाड़ी या सूर्यस्वर कहा। इसी प्रकार बायें नासिका रंध्र से निकलनेवाली हवा में थोड़ी सी शीतलता रहती है। इसलिए उसे चन्द्र नाड़ी या चन्द्रस्वर कहा। इन दोनों में समन्वय साधने के लिए योग शास्त्र में प्रधानता दी गयी। ह’ वर्ण चन्द्र और “ठ वर्ण सूर्य के प्रतीक बनाये गये। फलस्वरूप हठयोग का उद्धव हुआ। हठयोग चन्द्र और सूर्य नाड़ियों से संबंधित विज्ञान है। हठ का मतलब हठपूर्वक नहीं है। प्राणायाम संबंधी सारा विज्ञान चंद्र-सूर्य स्वरों से संबंधित है।

2. प्राणायाम के प्रयोजन

1. फेफड़े अच्छी तरह काम करते हैं।

2. शरीर को प्राणवायु अच्छी तरह प्राप्त होती है।

3. रक्त की शुद्धि होती है। रक्त की अशुद्धियाँ दूर होती हैं।

4. हृदय को शक्ति मिलती है|

5. मस्तिष्क चुस्त रहता है।

6.

7. जठराग्नि बढ़ती है।

8. शरीर का स्वास्थ्य ठीक रहता है।

9. मन के विकार दूर होते हैं। मनोजय होता है |

10. उम्र लंबी होती है। यह प्राणायाम की सबसे बड़ी विशेषता है।

3. आवश्यक सूचनाएँ

1. मैदान, बाग या खुले दरवाजोंवाले कमरों में, कंबल या साफ कपड़े या किसी आसन पर बैठ कर प्राणायाम करना चाहिए।

2. तेज़ी से चलनेवाली हवा के बीच प्राणायाम नहीं करना चाहिए।

3. गंदी जगह, बदबूदार जगह, जहाँ धूल उड रही हो या धुआँ आ रहा हो वहाँ प्राणायाम नहीं करना चाहिए।

4. सिगरेट, बीड़ी तथा चुरुट का धुआँ जहाँ हो, वहाँ प्राणायाम नहीं करना चाहिए।

5. जब पेट खूब भरा हुआ रहता है, तब प्राणायाम नहीं करना चाहिए।

6. प्राणायाम के पूर्व या प्राणायाम के बाद भी अन्य योगासन कर सकते हैं। अंत में शवासन कर थोडी देर आराम करना चाहिए।

7. प्राणायाम करते समय कपड़े कम पहनना चाहिए। जो कपड़े पहने वे ढ़ीले हों |

8. पद्मासन, सुखासन, सिद्धासन तथा वज्रासन प्राणायाम के लिए अनुकूल आसन हैं। ज़मीन पर बैठ न सकनेवाले कुर्सी पर सीधे बैठ कर अथवा सीधे खड़े रह कर प्राणायाम कर सकते हैं।

9. कमर, पीठ, रीढ़ की हड़ी, गर्दन तथा सिर को सीधा रख कर प्राणायाम करना चाहिए।

10. प्राणायाम करते समय एक बार दायाँ नासिका रंध्र और एक बार बायाँ नासिका रंध्र बंद करना पड़ता है| दायाँ नासिका रंध्र दायें हाथ के अंगूठे से तथा बायाँ नासिका रंध्र दायें हाथ की तीसरी उंगली से बंद करना चाहिए।

11. नासिका रंध्र साफ न हों तो प्राणायाम करने के पूर्व जलनेति तथा सूत्रनेति क्रियाएँ ठीक तरह से करनी चाहिए। ऐसा करने से प्राणायाम के समय श्वास का चलन ठीक तरह से होगा।

12. प्राणायाम की क्रियाएँ करते समय मन को पूर्ण रूप से श्वास और प्रश्वास की क्रियाओं पर ही केन्द्रित करना चाहिए। अन्य विचारों को मौका नहीं देना चाहिए।

4. प्राणायाम की विविध विधियाँ

जन्म से-लेकर मृत्यु पर्यत श्वास-प्रश्वास की क्रिया चलती ही रहती है| इसे मन अनुभव कर सके तो यही प्राणायाम है| प्राणायाम के समय श्वास-प्रश्वास नियंत्रित किये जाते हैं। इसलिए हर आसन प्राणायाम से परिणति पाता है| प्राणायाम के 108 प्रकार निश्चित किये गये। उनमें निम्न 12 मुख्य हैं

(1) नाडोशोधन प्राणायाम,
(2) भस्त्रिका प्राणायाम,
(3) भ्रामरी प्राणायाम,
(4) शीतली प्राणायाम,
(5) शीतकारी प्राणायाम,
(6) सूर्यभेदी प्राणायाम,
(7) चन्द्रभेदी प्राणायाम,
(8) उज्जाई प्राणायाम,
(9) मूर्छा प्राणायाम,
(10) प्लाविनी प्राणायाम,
(11) कपाल भाति शुद्धि प्राणायाम तथा
(12) विश्राम प्राणायाम.

1) नाड़ी शोधन प्राणायाम

इसे सरल प्राणायाम या अनुलोम-विलोम प्राणायाम भी कहते हैं।

विधि –
सीधे बैठ कर आँखें मूंद कर, दोनों भौहों के मध्य स्थित भूकुटि पर थोड़ी देर मन की दृष्टि डालें। इसके बाद दायें हाथ के अंगूठे से दायाँ नासिका रंध्र बंद करें | बायें नासिका रंध्र से अंदर की हवा को धीरे से बाहर छोड़े। बाद बायें नासिका रंध्र से ही हवा अंदर लें। जब अंदर हवा भर जाये तब बायें नासिका रंध्र को तीसरी उंगली से बंद कर दायें नासिका रंध्र से धीरे से हवा छोड़े | फिर दायें नासिका रंध्र से वायु अंदर लें। इससे प्राणायाम का एक चक्र पूरा होगा | आरंभ में 3 चक्र करें। बाद अनेक चक्र कर सकते हैं। पहले रेचक, बाद पूरक करें। कुछ दिनों के अभ्यास के बाद अन्तर-कुंभक करें। इसके अभ्यास के कुछ दिन बाद बाह्य कुंभक भी करें। कुछ दिनों के अभ्यास के बाद इनके लिए निम्न सूचित समय का निर्धारण करें।

1) रेचक – 10 सेंकड
2) बाह्यदुकुंभक – 5 सेकंड
3) पूरक – 5 सेकंड
4) अंतर कुंभक – 20 सेकंड

अर्थात् 2/1/1/4 मात्राओं का समय निर्धारित है। जब अभ्यास हो जाये तब रेचक 64 सेंकड, बाह्य कुंभक 32 सेकंड, पूरक 32 सेकंड, अंतर कुंभक 128 सेंकड तक कर सकते हैं। सेकंडों को सूचित करनेवाली घड़ी सामने रख कर सावधानी से ये क्रियाएँ करें।

लाभ –
इस प्राणायाम से जुकाम, खाँसी तथा सिरदर्द दूर होते हैं। टेन्शन नहीं होता | मन को शांति मिलती है। नासिका साफ होती है|

नाडी मंडल शुद्ध होता है | दिन भर चलने वाली साँस धीमी हो जाती है। जिससे उम्र लंबी होती है |

2) भास्त्रिाका प्राणायाम

भस्त्रिका का अर्थ है धौंकनी। धौंकनी भट्टी के फोर्स के साथ हवा पहुँचाती है। इस क्रिया में नाक से ली जानेवाली हवा धौंकनी की हवा की भाँति ध्वनि करती है।

विधि –
इसकी 4 विधियाँ हैं।

(1) चंद्रांग भस्त्रिका,
(2) सूर्याग भस्त्रिका,
(3) सुषुम्ना भखिका,
(4) चन्द्रांग, सूर्याग भस्त्रिका |

(1) चन्द्रांग भत्रिका

बैठ कर या खड़े होकर भी यह क्रिया की जा सकती है| कमर, पीठ, रीढ़ की हड़ी तथा गर्दन को सीधा करें। दायां नासिका रंध्र, दाये हाथ के अंगूठे से बंद करें। केवल बायें नासिका रंध्र से हवा फोर्स के साथ छोड़ें। तुरंत फोर्स के साथ हवा अंदर लें। लगातार 10 या उससे अधिक बार यह क्रिया करते रहें। हवा का स्वरूप धौंकनी की हवा की तरह रहे। यह जरूरी है। रेचक के साथ नाभि को अंदर पिचकावें। पूरक के साथ नाभि एवं उदर को फुलाते रहें। यह क्रिया रक्तचापवाले तथा उष्ण शरीरवाले अधिक बार करें। दमा, सर्दी के रोगी इसे कम बार करें |

(2) सूर्याग भस्त्रिका

बायें नासिका रंध्र को तीसरी उँगली से बंद करें | केवल दायें नासिका रंध्र से फोर्स के साथ ऊपर के भाँति यह क्रिया करें | जिनके शरीर में शीतलता अधिक हो, सॉस संबंधी तकलीफ जिनको अधिक हो, वे यह क्रिया अधिक बार करें। रक्त चाप तथा उष्ण शरीरवाले यह क्रिया कम करें।

(3) सुषुम्ना भस्त्रिका

दायां नासिक रंध्र दायें अंगूठे से बंद कर फोर्स के साथ बायें नासिका रंध्र से हवा बाहर छोड़ दें| बायें नासिका रंध्र से ही फोर्स के साथ हवा अंदर लें। तीसरी उँगली से बायाँ नासिका रंध्र बंद कर दायें नासिका रंध्र से फोर्स के साथ छोड़ दें। तुरंत दायें नासिका रंध्र से ही हवा अंदर लें। इस तरह दायें, बायें नासिका रंधों से बार-बार हवा बाहर छोड़ते तथा अंदर लेते रहें। पेट को जल्दी-जल्दी श्वास के साथ-साथ आगे पीछे हिलाते रहें। नाड़ी शोधन प्राणायाम की तरह, पर जल्दी – जल्दी की जानेवाली श्वास-प्रश्वास संबंधी यह क्रिया है| इसंसे आंतरिक दिव्य शक्तिओंका विकास होता है।

(4) चंद्रांग सूर्यांग भस्त्रिका

दोनों नासिका रंध्रों से हवा फोर्स के साथ छोड़ते, लेते रहें। नाभि को अंदर खीचते, फुलाते हुए धीरे-धीरे हवा के वेग को बढ़ावें। धौंकनी से निकलनेवाली हवा का वेग रहे। शक्ति के अनुसार यह क्रिया करने के बाद आराम करें। पेट में उष्णता बढ़ेगी, इस पर ध्यान दें|
स्वस्थ लोग भस्त्रिका प्राणायाम करें | हृदय दर्द, उच्च रक्तचाप, अल्सर तथा आंखों में चक्कर आदि रोगों से त्रस्त लोग यह क्रिया न करें। यह क्रिया करनेवाले दूध, घी तथा मक्खन ज्यादा खाते रहें।

लाभ –

भस्त्रिका प्राणायाम से चरबी घटती हैं । स्थूलकाय कम होता है। जठराग्नि बढ़ती है। छाती में स्थित फेफड़े तथा हृदय, पेट के अंदर की छोटी ऑत, बड़ी आँत, लिवर, स्लीन, मूत्रपिंड तथा पेंक्रियास ग्रंथियों को स्फूर्ति मिलती है। श्लेष्म कम होता है। उष्णता बढ़ती है। रक्त की शुद्धि होती है। अस्थमा कम होता है। शारीरिक एवं मानसिक शक्ति बढ़ती है। मस्तिष्क चुस्त रहता है।

3) भ्रामरी प्राणायाम

इस प्राणायाम में भ्रमर के जैसा झंकार सुनाई देता है। इसलिये यह भ्रामरी प्राणायाम कहलाता है|

विधि –
सीधे बैठ कर दोनों कानों में दोनों अंगूठे रखें। कुहनियों को कंधों के समान रंध्रों के द्वारा भ्रमर के झंकार की तरह ध्वनि करते हुए रेचक करें। जीभ को सामान्य स्थिति में रखें। आरंभ में एक बार करें। बाद बढ़ाते हुए 21 बार तक कर सकते हैं। एकांत में शांति से बैठ कर यह क्रिया tr: : . करें।

लाभ –
इस प्राणायाम से कंठ स्वर कोमल, मधुर एवं लयबद्ध होता है। कंठ से संबंधित व्याधियाँ दूर होती हैं। मस्तिष्क शुद्ध होता है। टेन्शन कम होता है | स्मरण शक्ति व एकाग्रता बढ़तीं है | नींद अच्छी आती हैं। गायक व अधिक बोलने वाले शिक्षक आदि इसका नित्य प्रयोग करें।

सूचना –
ध्यान संबंधी प्रत्येक क्रिया के बाद भ्रामरी प्राणायाम अवश्य करें। इसके बाद मन को सामान्य स्थिति में ले आवें।
ऑकार की ध्वनि भी भ्रामरी प्राणायाम ही है। शिशु जन्म लेते ही रोता है। यह सर्वप्रथम भ्रामरी क्रिया है।

4) शीतली प्राणायाम

विधि –
जीभ मुँह से बाहर निकालें। चम्मच की तरह उसे गोलाकार मोड़े। आहिस्ते से ध्वनि फिर मुँह बंद कर थोडी देर रोक कर नासिका रंध्रों से उसे बाहर छोडें| पहले तीन बार करें, फिर धीरे धीरे बढ़ाकर पन्द्रह बीस बार तक कर सकते हैं।

सूचना –
गर्मी के दिनों में यह क्रिया करें। जाड़े के दिनों में अधिक न करें। प्यास लगे, पीने के लिए पानी पास न रहे तो इस प्राणायाम से प्यास बुझ जायेगी।

लाभ –
उच्च रक्त चाप वालों के लिये यह बड़ा उपयोगी है। गले तथा मुँह में से दूर होती हैं। मन शांत हो जाता है।

5) शीतकारी प्राणायाम

विधि –
बैठ कर दाँतों की दोनों पंक्तियाँ आपस में कस कर रखें। जीभ की नोक दांतों के अंदरूनी भाग से लगावें | होंठ खोल कर, दाँतों के बीच में से हवा अंदर खीचे | हवा अंदर खींचने के बाद होंठ बंद करें। उसे नाक से बाहर छोड़ दें। आरंभ में यह क्रिया तीन बार करें। इसके बाद पन्द्रह या बीस बार करें।

सूचना –यह क्रिया जाड़े के मौसम में ज्यादा न करें | = “” गर्मी के मौसम में करें। श्लेष्म जिनमें अधिक रहे वे यह क्रिया न करें।

लाभ –
शीतली प्राणायाम से जो लाभ होते हैं, वे सब इस शीतकारी प्राणायाम से भी होते हैं। मुँह ठंडा होकर स्वस्थ रहता है।

6) सूर्यभेदी प्राणायाम

विधि –
इस क्रिया में हर बार सूर्यनाड़ी से अर्थात् दायें नासिका रंध्र से गहरी सांस धीरे-धीरे अंदर लें। चन्द्रनाड़ी से अथति बायें नासिका रंध्र से उसे बाहर छोड़ दें। आरंभ में दो बार, इसके बाद धीरे धीरे बढ़ाकर दस पन्द्रह बार करें।

लाभ –
इस प्राणायाम से खांसी, कफ तथा अस्थमा दूर होते हैं। शारीरिक बल बढ़ता है।

सूचना –
शरीर में यह क्रिया गर्मी बढ़ाती है। इसलिए गर्मी के दिनों में यह क्रिया ज्यादा न करें। जिनके शरीर में गर्मी अधिक हो, वे यह क्रिया ज्यादा न करें। अधिक रक्तचापवाले यह क्रिया न करें |

7) चन्द्रभेदी प्राणायाम

विधि –
इस क्रिया में हर बार चन्द्रनाड़ी से अर्थात् बायें नासिका रंध्र से गहरी सांस धीरे से अंदर लें। उसे सूर्यनाड़ी अर्थात् दायें नासिका रंध्र से छोड़ दें। यह क्रिया गर्मी के मौसम में करें।

लाभ –
प्राणायाम को इस क्रिया से शरीर में ठंडापन आ जाता है। हाइब्लड प्रेशर तथा क्रोध कम हो जाते हैं।

सूचना –
अस्थमा से पीड़ित लोग यह क्रिया न करें।

8) उज्जाई प्राणायाम

विधि –
इस क्रिया में श्वास लेते समय गले से बड़ी ध्वनि का निकलना जरूरी है। पूरक और रेचक दोनों क्रियाएँ दोनों नासिका रंध्रों से करें। इसमें कंठ और अल्लिजिव्हा नीचे की तरफ दबा दें । जीभ को मोड़ कर उसे मुंह के अंदर ऊपरी तालु से लगावें |

गले में ध्वनि करते हुए दोंनों नासिका रंध्रों से गहरी सॉस अंदर लें। नासिका रंधों से सामान्य रुप से श्वास बाहर छोड़ दें|

लाभ –
उज्जाई प्राणायाम से कंठ, फेफड़े तथा हृदय पर अच्छा प्रभाव पड़ता है|नाक, कान तथा गले से संबंधित व्याधियाँ कम होती हैं। खाँसी, अस्थमा, हाईब्लड प्रेशर तथा यक्ष्मा जैसी व्याधियाँ दूर होती हैं। थैराइड आदि गले की ग्रथियां ठीक रहती है। बुढ़ापा दूर रहता है।

9) मूछां प्राणायाम

विधि –
दोनों नासिका रंध्रों से हवा अंदर लें। ठोढ़ी को छाती से लगावें। अर्थात् जालंधर बंध करें | शक्तिभर हवा को अंदर रोक रखें। लगेगा कि सिर में चक्कर आ रहा है। तब नासिका रंध्रों से हवा को बाहर छोड़ दें। आंखे मूंदी रहें। यह कठिन क्रिया है। आरंभ में विशेषज्ञों के समक्ष उनकी सलाह लेकर यह क्रिया करें।

लाभ –
इस क्रिया से मस्तिष्क को शांति मिलती है| उसमें चुस्ती आ जाती है।

सूचना –
पागलपन से या मानसिक व्याधि से पीड़ित लोग यह क्रिया न करें।

10) प्लावांनी प्राणायाम

विधि –
सीधे बैठ कर एक-एक घूंट साँस को अंदर खींचें। पेट को फुलातें रहें। उस हवा को अंदर ही रोक कर थोड़ी देर कुंभक करें।

इसके बाद झुक कर जीभ बाहर निकाल कर धीरे से पूरी सॉस बाहर छोड़ दें। आरंभ में दो-तीन बार यह क्रिया करें।

लाभ –
इस क्रिया से जीर्ण शक्ति बढ़ेगी। काम करने का उत्साह बढ़ेगा। मस्तिष्क संबंधी रोग दूर होंगे। खूब अभ्यास हो जाये तो प्राणायाम की यह क्रिया करते हुए जल में नाव की तरह तैरते रह सकते हैं।

11) कपाल भाति शुद्धि प्राणायाम

श्वास नियंत्रण से संबंधित इस शुद्धि क्रियात्मक प्राणायाम से मस्तिष्क की शुद्धि होती है।

विधि –
सीधे बैठे | नाक से झटके के साथ श्वास छोड़े। नाक से ही सामान्य श्वास को अंदर आने दें। कंधे न हिलें। शुरु से आखिर तक हर सांस एक जैसी रहे। 30 सेकंड से प्रारंभ कर कुछ दिनो में 2-3 मिनिट तक यथा शक्ति करें। केवल पेट आगे पीछे होता रहे। चेहरे पर कोई तनाव न रहे |

लंबे अभ्यास के बाद-एक ही बार सांस ले कर 2 या 3 या अधिक संसों को छोडने की क्रियाएँ करें।

सूचना –
सामान्यतः कुछ ही (2-3) मिनट का अभ्यास काफी हो जाता है| समय और आवश्यकता हो तो ही कुशल मार्गदर्शन में अधिक समय तक करें |

निषेध –
चेहरे, नाक, गले, हृदय, छाती या पेट की गंभीर समस्या वाले अपने आप या केवल टीवी या पुस्तक के सहारे न करें।

लाभ –
मस्तिष्क चमक उठता है। स्मरण शक्ति, एकाग्रता, स्फुर्ति, आत्म विश्वास बढ़ते है| विचार धारा स्पष्ट होती है। भय, निराशा, उदासी कम होते है।

12) विश्राम प्राणायाम

इस के अभ्यास से तन-मन को बहुत विश्राम मिलता है।

विधि –
निस्पंद भावासन (113) में बैठे। नाक से लंबी सांस अंदर लें। मुंह में हवा भर कर गाल फुलावें। तूरंत पूरी सांस फोर्स के साथ मुंह से छोडे । 8-10 । बार करें।

लाभ –
थकान दूर हो जाती है। सीढ़ी चढ़ने, दौडने, ச कूदने, अधिक काम या भारी व्यायाम/योगासन/सूर्य नमस्कार आदि के कारण से फूली हुई सांसे तथा बढ़ी हुई धडकन इस प्राणायाम से सामान्य हो जाते हैं। तन-मन को पूर्ण आराम मिलता है। इसे कभी भी कर सकते हैं।


समय ऑौर सुविधा वे? अनुसार प्राणायाम की उपयुक्त क्रियाऍ प्रशांत हृदय से करते हुए साधक अद्भुत लाभ उठा सकते हैं।