3. शरीर निर्माण और उसकी विशेषताएँ

सृष्टि में मानव जन्म श्रेष्ठ माना जाता है| मनुष्य का भौतिक स्वरूप शरीर है। शरीर निर्माण तथा उसके निर्वहण में पंच तत्व मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश सहयोग देते हैं। जब आदमी मर जाता है तब उसका शरीर पंचतत्वों में विलीन होता है। किन्तु जब तक मनुष्य जीवित रहता है तब तक उसके दिल में “मैं- मेरी” की भावना बनी रहती है। इसीलिए आदमी अपने शरीर के पोषण तथा रक्षण के लिए प्रयास करता रहता है। फलस्वरूप वैद्यशास्त्र, कई प्रकार की चिकित्सा पद्धतियाँ तथा योग विद्या आदि का सूजन हुआ है। मानव के बाहरी शरीर के साथ ही साथ, उसके अंदर के अवयवों की शुद्धि में योग का अभ्यास सहयोग देता है।

शरीर के विभाग

1) ज्ञानेंद्रियाँ
2) कर्मेन्द्रियाँ
3) मस्तिष्क और नाडी मंडल
4) हृदय, फेफडे और रक्त प्रसार विभाग
5 ) श्वास-प्रश्वास प्रणाली
6) मांसपेशियाँ
7) पाचन तंत्र (जीर्णकोश) एवं शरीर पोषक प्रणाली
8) हड़ियाँ
9) ग्रंथियाँ
10) मूत्रपिंड (किडनी)
11) जननेंद्रिय
12) मल विसर्जन प्रणाली

शरीर के उपरोक्त सभी विभागों पर योगाभ्यास का अच्छा प्रभाव पड़ता है। दवाओं के बिना प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए स्वस्थ रहने में योग विद्या सहयोग देती है |

मनुष्य की शारीरिक क्रियाएं दो प्रकार की होती हैं। (1) मनुष्य की इच्छा व उसके प्रयास से होनेवाली क्रियाएँ। (2) मनुष्य की जानकारी व उसके प्रयास के बिना सहज रूप से चलनेवाली क्रियाएँ। चलना, लेटना, उठना, बैठना, बोलना एवं देखना आदि क्रियाएँ मनुष्य की इच्छा के अनुसार होती हैं। दिल की धड़कन, नाडी का चालन, श्वास-प्रश्वास तथा पलकों का झपकना आदि क्रियाएँ अपने आप होती रहती हैं।

शरीर के अवयवों पर मन, मन पर बुद्धि, बुद्धि पर अहं का अधिकार चलता है| इन सब पर आत्मा का शासन चलता है| शरीर के विभिन्न अवयवों के बारे में संक्षेप में जानना जरूरी है।

1. झार्नेद्वियौं

कान, चर्म, ऑख, जीभ तथा नाक’ ये पाँच ज्ञानेंद्रियाँ हैं। ये पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ पाँच तत्व मिट्टी, जल, वायु, अग्नि तथा आकाश के कार्य करते रहते हैं। मिट्टी का गुण है गाँध। नाक से हम गंध ग्रहण करते हैं। सूच कर हम गंध की विशेषता जान लेते हैं। जल का गुण है रस। जीभ से हम रस का स्वाद लेते हैं। अग्नि का गुण है प्रकाश। आंख से हम प्रकाश को देखते हैं। वायु का गुण है स्पर्श। चर्म के द्वारा हम स्पर्श का ज्ञान प्राप्त करते हैं। आकाश का गुण है शब्द व ध्वनि । शब्द व ध्वनि को हम कान से सुनते हैं।

2. कमेंद्रियाँ

मुँह, हाथ, पैर, लिंग या योनि तथा मलरंध्र’ ये पाँच कर्मेद्रियाँ हैं। इनके कार्यों तथा इनकी विशेषताओं से हम सब अच्छी तरह परिचित हैं।

3. मस्तिष्क और नाड़ी मंडल

मस्तिष्क या दिमाग सिर में रहता है। यह कई नाड़ियों से आवृत रहता है। वे नाड़ियाँ विद्युत तारों की तरह शरीर में व्याप्त होकर उसे चलाती हैं| मस्तिष्क अखरोट के आकार में रहता है। यह बड़ा नाजुक होता है। इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नाड़ियों के साथ और भी अनेक सूक्ष्म एवं स्थूल नाड़ियाँ | रीढ़ के अंतिम छोर से शुरू होकर मस्तिष्क तक व्याप्त होती हैं। शरीर को संचालित ܢܗܢܡܠ ܐ¬ 77 ܐܚܝܗ܂ ` करनेवाला मस्तिष्क जितना \ शक्तिवान एवं तेज रहता है, शरीर भी उतना ही शकितवान और तेज रहता है| मस्तिष्क को स्वस्थ रखने में योगासन, प्राणायाम तथा योग क्रियाओं का महत्वपूर्ण स्थान है।

4. हृदय, फेफड़े और रक्त प्रसार विभाग

आदमी का हृदय बंद मुट्ठी की भांति होता है। वह छाती में बांयीं ओर स्तन के नीचे रहता है। सीढ़ियाँ चढ़ते समय, दौड़ने और डर लगने पर हृदय तेजी से धड़कता है| इस धड़कन को सभी लोग जानते हैं|

कई धमनियाँ एवं शिराएँ इसमें लगी रहती हैं। इनके द्वारा शरीर भर में रक्त का संचार होता रहता है| कुछ नाड़ियाँ अशुद्ध रक्त अंदर ले कर शुद्ध रक्त प्रसारित करती हैं। छाती में दो फेफड़े होते हैं| वे हमेशा धड़कते रहते हैं। वे रक्त को शुद्ध कर प्रसारित करते हैं।

स्वस्थ आदमी का हृदय एक मिनट में 70 या 75 बार धड़कता है। हर दिन 24 घंटे वह काम करता रहता है| जब तक आदमी जिंदा रहता है तब तक उसकी धड़कन चालू रहती है। यदि रक्त का प्रसार ठीक न चले अथवा हृदय में व्यर्थ पदार्थ बढ़े तो खतरनाक बीमारियाँ होती हैं। प्राणायाम तथा योग क्रियाएं करते रहें तो छाती दर्द आदि बीमारियाँ नहीं होंगी।

5) श्वास-प्रश्वास प्रणाली

हम नासिका रंधों से सांस लेते हैं| वह हवा श्वास नालिका द्वारा फेफड़ों में प्रवेश करती है। स्वस्थ मनुष्य एक मिनट में 15 या 16 बार सांस लेता है। शारीरिक श्रम या व्यायाम करने, दौड़ने तथा बीमार पड़ने पर इस संख्या में वृद्धि होती है| जब शरीर के अंदर अनावश्यक पदार्थ जमा होता है तब अंदर के अवयव उन्हें प्रश्वास, पसीना तथा मल मूत्र के रूप में विसर्जित करते हैं। प्राणवायु श्वास के रूप में अंदर जाती है| अशुद्ध वायु प्रश्वास के रूप में बाहर आती है।

योग शास्त्र में सांस लेने को पूरक, उस वायु को अंदर ही रखने को कुंभक तथा बाहर छोड़ने को रेचक कहते हैं। पूरक, कुंभक एवं रेचक का योगशास्त्र में महत्वपूर्ण स्थान है।

6. मांसपेशियाँ

मांस पेशियाँ शरीर में संचालन लाती हैं। ये हड़ियों से लगी रहती है। हड़ियों को ढक कर रखती हैं | माँसपेशियों में कोशिकाएं अधिक रहती है। पहलवानों की मांसपेशियाँ मोटी एवं शक्तिशाली होती हैं। योगासन करने वालों की मांसपेशियाँ चुस्त एवं सुदृढ़ होती हैं। अस्थि पंजर तथा कंकाल से जुड़े रहनेवाली मांस कोशिकाओं तथा नसों को मांसपेशियाँ कहते हैं। हिलना, मांसपेशियों द्वारा होती हैं। हृदय से शरीर भर में रक्त प्रसार करने, शरीर के सभी अवयवों को आहार पहुँचाने तथा श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया के सही निर्वहण में मांसपेशियों का सहयोग अधिक रहता है। मस्तिष्क की सूचना के अनुसार, ऐच्छिक मांसपेशियाँ इसमें सहयोग देती हैं। अनैचिछक मांसपेशियाँ सहज रूप से अपना काम करती रहती हैं | रवत प्रसारण, पाचनक्रिया तथा हृदय की धड़कन आदि क्रियाएँ निरंतर होती रहती हैं। शरीर के सभी जगहों पर विविध आकार में माँसपेशियाँ रहती हैं | मांस में रक्तवाहक नाड़ियां जाल की तरह व्याप्त रहती हैं। मांसपेशियाँ सिकुड़ती हैं। खुलती हैं। फैलती हैं। फिर पूर्वस्थिति में आती हैं। इन पर जब चरबी आवश्यकता से अधिक बढ़ जाती है तब तरह-तरह की बीमारियाँ शुरू होती हैं। साधारणतया प्रसूति के बाद स्त्रियों के शरीर में चरबी बढ़ जाती है फलस्वरूप उनके अंग मोटे होते हैं। योगासनों के द्वारा ऐसे विकार दूर किये जा सकते हैं।

7. पाचन तंत्र (जीर्णकोश) एवं शरीर पोषक प्रणाली

हम जो खाना खाते हैं, उसका पाचन कर उसके पोषक पदार्थ रक्त मंडल को पहुँचाना पाचनतंत्र का कर्तव्य है| मुंह, आहार नालिका, आमाशय, लिवर (यकृत), स्प्लीन, छोटी आंत तथा बडी आंत आदि इस प्रणाली के अवयव हैं।

उदर में स्थित यह यंत्र रोगों की जड़ है। जिन्दगी भर अगर मनुष्य का जीर्णमंडल स्वस्थ और सुचारु रुप से चलता रहे तो स्वास्थ्य की रक्षा के लिए किसी की शरण में जाने की उसे जरूरत नहीं पड़ेगी |

मुँह

यहीं से पाचन तंत्र का प्रारंभ होता है | भोजन को चबाने की क्रिया दांतो के द्वारा मुंह में होती है जिससे క్స్ भोजन के पाचन की क्रिया का प्रारंभ होता है |

आहार नलिका

यह आम तौर पर 25 से 40 सेंटीमीटर लंबी होती है। कंठ के पास से अन्नाशय तक यह व्याप्त रहती है। इसके अंदर कुछ ग्रंथियाँ होती हैं।

आहार नालिका लंबी एवं गोल होती है। यह मांसपेशियों से निर्मित होती है। इसमें हड़ियाँ नहीं होतीं। हम जो खाना खाते हैं वह लारजल से मिल कर रस बन कर आहार नालिका के द्वारा आमाशय में पहुँचता है।

आमाशय (अन्नाशय)

आहार नालिका का अंतिम भाग आमाशय है| आमाशय की दीवारें बड़ी और घनी होती है| उसमें जठररस उत्पन्न करनेवाली ग्रंथियाँ होती हैं। इनके द्वारा पोषक पदार्थ जीर्णमंडल में तैयार होता है| वह पोषक पदार्थ शरीर के सभी अवयवों को आवश्यक परिमाण में पहुँचाया जाता है।

लिवर (यवृकृत)

शरीर की सब ग्रंथियों से लिवर आकार में बड़ा है। यह लाल रहता है| यह शरीर के दायीं ओर बगल की हड़ियों के पीछे सुरक्षित रहता है। यह एक या डेढ़ किलो का रहता है। इसमें जीर्णरस या पितरस का उत्पादन होता है। इस पितरस की सहायता से लिवर रक्त की अशुद्धि को यूरिया के रूप में बदल कर उसे मूत्रपिंडों में भेज देता है| लिवर का यह काम बड़े महत्व का है| अांतों से जो विषपदार्थ आता है, वह लिवर में नष्ट हो कर घट जाता है। बचा खुचा श्वेत रस या सार शरीर में शक्ति भरता है। शराबियों का लिवर जल्दी खराब होता है। फलस्वरूप वे रोगग्रस्त हो जाते हैं।

स्प्लीन – (कालेय)

यह 12 सेंटीमीटर की लंबी ग्रंथि है। दांतों में यह रक्त का प्रसार करती है| लालरक्त को जन्म देती है| यह क्रोम ग्रंथी के ऊपरी भाग के छोर पर एक थैली के रूप में बनी रहती है। किसी कारणवश ऑपरेशन कर स्प्लीन निकाल दें तो भी मनुष्य जिन्दा रहता है।

छोटी आंत

छोटी आंत मनुष्य की ऊंचाई से पाँच गुना लंबी होती है। यह आमाशय के नीचे के भाग से निकल कर टेढी-मेढी चाल से उदर में पहुंच कर बडी आंत में मिल जाती है। छोटी आंत का ऊपरी हिस्सा नाजुक होता है|इसकी कोशिकाएं पच्चे हुए आहार को सोख कर उसे रक्त में मिलाती हैं।

बडी आंत

बडी आंत की लंबाई मनुष्य की ऊंचाई भर होती है। यह दाई ओर से निकल कर थोड़ी दूर ऊपर जाकर, बायीं ओर से नीचे पहुँच कर उतर कर आमाशय के नीचे मलद्वार से मिलती है | आहार में बचा व्यर्थ पदार्थ मल के रूप में बड़ी अॉत के द्वारा विसर्जित होता है| बड़ी आंत में मल जम जाये तो अनर्थ होता है।

जीर्णमंडल की रक्षा तथा स्वस्थता के लिए कई योगासन तथा योग शुद्धि क्रियाएं निर्धारित हैं। सही तरीके से उन्हें आचरण में लावें तो जीर्णकोश से संबंधित रोग दूर होते हैं।

8. हड़ियाँ

मनुष्य का शरीर अस्थि पंजर पर निर्भर रहता है। इस कंकाल का निर्माण सुदृढ़ हड़ियों से होता है| कंकाल में कुल 206 हड़ियाँ हैं। सिर में 22, धड़ में 52, हाथों तथा पैरों में 126, दोनों कानों में 6, कुल 206 हड़ियाँ हैं। गर्दन के नीचे, पीठ के बीच में रीढ़ की हड़ी है। इसमें 33 पतली हड़ियां हैं। शारीरिक दृढ़ता रीढ़ की हड़ी पर निर्भर होती है।

कंकाल के तीन भाग हैं। 1. सिर, 2. धड़, 3. हाथ-पैर । धड़ की 52 हड़ियों में से 24 हड़ियाँ मनुष्य की छाती में घोंसले की तरह बनी होती हैं। इसमें नाजुक फेफड़े और रक्त की नाडियाँ हैं। योगशास्त्र के अधिकांश आसन रीढ़ की हड़ी की दृढ़ता से संबंधित हैं।

9. ग्रंथियाँ

मनुष्य के शरीर में छोटी और बड़ी सब मिला कर कुल 108 ग्रंथियाँ हैं। उनमें से कुछ मुख्य ग्रंथियों का विवरण यहाँ दिया गया है।

पीनियल ग्रंथी

यह मस्तिष्क से संबंधित है| यह ठीक काम करे तो मेधा शक्ति ठीक ढंग से काम करेगी। शरीर में शक्ति, सामथ्र्य तथा चुस्ती भरी रहेगी।

पिच्युटरी ग्रंथी

यह सिर के नीचे, गर्दन से होती हुए नीचे उतर कर नाभि मंडल से जुड़ती है। यह हड़ियों तथा मांसपेशियों को प्रभावित करती है। इससे स्त्रियों के अंडाशय, पुरुषों के शुक्रकोश सही तरीके से काम करते हैं। प्रसूति के बाद इस ग्रंथी से माताओं के स्तनों में शिशु के लिए क्षीर भर जाता है।

थेराइड ग्रंथी

यह कंठ में रहती है। रासायनिक द्रव्यों को समतुल्य बनाना, पाचन वृद्धि में सहयोग देना थैराइड ग्रंथी का काम है| यह ग्रंथी ठीक ढंग से काम न करे तो शरीर मोटा अथवा निर्बल हो जाता है। स्थूलता या निर्बलता स्रीपुरुषों के लिए श्रम दायक है।

क्रोम ग्रंथी

यह उदर के मध्य भाग में आमाशय के पास रहती है। इसमें पाचन संबंधी रस उत्पन्न होता है। इससे जठराग्नि बढ़ती है।

एड्रिनल ग्रंथी

यह नाभि के पास रहती है। रक्त प्रसार को ठीक करती है। पाचन संबंधी द्रवों की वृद्धि करती है।

पेंक्रियास ग्रंथी

यह पेट में बाई आोर रहती है। इसमें इन्सुलिन नामक रस का उत्पादन होता है। यह रस, शक्कर को पचाता है। यह ठीक तरह से काम न करे तो शक्कर रक्त और मूत्र में प्रवेश कर मधुमेह की नींव डालता है| जब तक पेंक्रियास ग्रंथी ठीक ढंग से काम करती है, तब तक मधुमेह पास नहीं फटकता।

शुक्र ग्रंथी

स्त्री और पुरुष में शुक्र ग्रंथी होती है। यह जननेन्द्रिय से संबंधित है। पुरुषों में लिंग के नीचे वृषणों में यह ग्रंथी होती है। वीर्य की उत्पति करती है | स्त्रियों के जननेंद्रिय के अंदरूनी भाग में यह ग्रंथी रहती है। स्त्रियों के कंठस्वर में इसी के कारण कोमलता आती है। यह ग्रंथी स्त्रीपुरुषों के शरीर में ओज और तेज भरती है।

10. मूत्रपिंड (किडनी)

मानव शरीर में जमा होनेवाले व्यर्थ अशुद्ध पदार्थ का बहिष्कार मूत्रपिंड करते रहते हैं। इस कार्य में मूत्रपिंड को चर्म, मल रंध्र तथा मूत्र रंध्र भी सहयोग देते रहते हैं। चर्म के द्वारा पसीना बाहर निकल जाता है। मूत्रपिंड मूत्र को छान कर व्यर्थ द्रव पदार्थ को मूत्र के द्वारा बाहर भेज देते हैं। पाचन के बाद बचे व्यर्थ पदार्थ को बड़ी आांत मल के रूप में मल रंध्र के द्वारा विसर्जित करती है| योगासनों के द्वारा अजीर्ण व मल विसर्जन संबंधी रोग दूर किये जा सकते हैं।

मूत्रपिंडों की बिक्री जोरों से चल रही है। यदि मूत्रपिंड खराब हो जायें, काम न करें तो उन्हें निकाल कर, नये मूत्रपिंडों को लगाने की प्रक्रिया बड़ी सफलता के साथ अमल में लायी जा रही है| प्राणों की रक्षा के लिए यह प्रक्रिया उपयोगी सिद्ध हो रही है। मूत्रपिंडों को स्वस्थ रखने के लिए योगाभ्यास बड़ा उपयोगी सिद्ध हो रहा है।

रीढ़ की हड़ी की दायीं और बायीं ओर दो मूत्र पिंड होते हैं। इनके चारों ओर चरबी व्याप्त रहती है। मूत्र पिंडों पर निर्मित थैली जैसे अवयव में हार्मोन नामक द्रव पदार्थ उत्पन्न होता है। मूत्रपिंडों से एक मूत्राशय में आ जाती है। जब मूत्राशय भर जाता है तब मूत्र विसर्जन आवश्यक हो जाता है |

मूत्रपिंड रक्त की शुद्धि के काम आते हैं। धमनियों के द्वारा जो रक्त मूत्रपिंडों में पहुँचता है उसमें यूरिया एवं यूरिक एसिड आदि पदार्थ होते हैं। वे मूत्र के द्वारा बाहर निकल जाते हैं। इस प्रकार बाहर न जाकर व्यर्थ पदार्थ जमा रह जाये तो कुछ लोगों के मूत्रपिंड में कंकडों (स्टोन) का निर्माण होता है। इन्हें तुरंत निकाल देना जरूरी है। आजकल मूत्रपिंडों के रोग बढ़ रहे हैं।

11. जननेंद्रिय

मानव सृष्टि के मूल स्त्री-पुरुष के जननेन्द्रिय हैं। ये बहुत ही कोमल एवं नाजुक होते हैं। इन्हें अगर धक्का या चोट लगे तो प्राणांत भी होता है। पुरुष जननेंद्रिय लिंग वेत्र रूप में रहता है। लेकिन स्त्री जननेंद्रिय में गर्भाशय रहता है। वह स्त्रियों को मातृत्व प्रदान करता है। जब पुरुष के वीर्यकण स्त्री के रजकणों से पिंड की उत्पति के लिए आवश्यक अंशों से आवृत स्थिति में मिल जाते हैं, तब स्त्री गर्भ धारण कर शिशु को जन्म देती है। इसलिए कहा जा सकता है कि मानव सृष्टि का मूल कारण स्त्री-पुरुषो वेक्रे रज और वीर्य कणों का मिलन ही है। यह भी योग ही है।

पुरुष जननेंद्रिय वे दो भाग किये जा सकते हैं। 1. पुरुषांग, 2. वृषण | पुरुषांग का निर्माण मांसपेशियों से होता है। इन पेशियों में आगे बढ़ सकने का गुण निहित रहता है। मूत्रांग का मूत्रनाल मूत्र और वीर्य को बाहर निकालने में सहयोग देता है। मूत्राशय, मूत्रनाल, पुरुषांग, वृषण, गुदा, बीजकोश क्युपर्स ग्रंथियां, प्रोस्टेट ग्रंथी, वीर्यकोश, वीर्यनाल तथा पुरीषनाल पुरुष जननेंद्रिय के मुख्य अंश हैं। इनमें से ज्यादातर अवयव बाहर से दीखते हैं। परन्तु स्त्री जननेन्द्रिय के अधिकतर अवयव पेडू या अधो जठर में रहते हैं। स्त्री के बाहय जननेंद्रियों में योनि, बाहरी अधर तथा योनिशीर्ष मुख्य हैं। स्त्री के अंदरूनी जननेंद्रीय के अवयवों में अंडाशय, अंडवाहिका, गर्भाशय, मूत्राशय, अधोजठर की हड़ी, गर्भाशय का कंठ, पुरीषनाल तथा मूत्रनाल आदि मुख्य हैं।

स्त्री और पुरुष के अंदर और बाहर के सभी जननेंद्रियों के विकास, उनकी रक्षा एवं स्वास्थ्य के लिए कई योगासन निर्धारित हैं| उनको आचरण में ले आयें तो जननेंद्रिय संबंधी रोग पास नहीं फटकेंगे।

12. मल विसर्जन प्रणाली

छोटी एवं बड़ी आंतों से व्यर्थ पदार्थों को मल के रूप में बाहर भेजने का काम मल विसर्जन विभाग करता है। यदि यह विभाग सही ढंग से काम न करे तो तरह तरह के रोगों का आरंभ हो जाता है। इस विभाग की क्रियाओं की सफलता में योग क्रियाएं बड़ा सहयोग देती हैं।


शरीर के अवयवों तथा उनके कायाँ के बारे में अच्छी जानकारी हासिल करें तो रोगों की रोकथाम करने और अपने को स्वस्थ रखने में हर किसी को सफलता प्राप्त होगी |