20. उत्तम स्वास्थ्य के लिए द्यान (बेटर हेल्थ मेडिटेशन (बी.एच.एम.))


दि. 6 दिसम्बर, 1955 को मेरी उम्र 8 वर्ष की थी | योगं साधना के विशेषज्ञं मेरे पिताजी श्री कुंवरजी लालजी ने मेरे जन्मदिन पर भेंट के रूप में मुझे ध्यान योग का प्रथम उपदेश दिया। तब से ध्यान योग करते हुए मैंने बड़ी प्रगति की। 13 वर्ष की उम्र में 11वीं कक्षा में था। 17 वर्ष की उम्र में बी.एस.सी. परीक्षा पास कर मैं इंजीनियरिंग कॉलेज में भर्ती हुआ। मैं 14 भाषाएँ लिख, पढ़ और बोल सकता था। हजारों ग्रंथों का मैंने पठन किया। दि. 27 अप्रैल 1966 को मैं एक सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया | 9 दिन उस्मानिया अस्पताल में कोमा में पड़ा रहा | बाद होश में आ गया | परन्तु स्मरण शक्ति लुप्त हो गयी। थोड़े समय के बाद स्मरण शक्ति फिर आ गयी। दि. 6 दिसम्बर 1966 से ध्यान योग का शोध कार्य मैंने दोबारा शुरू किया। विशेष पाठ्यक्रम निर्धारित किया। दि. 8 अगस्त 1988 को जैन मंदिर, कोठी, हैदराबाद में प्रथम ध्यान योग शिविर चलाया | इस शिविर में बड़ी संख्या में साधकों ने भाग लिया | सभी ने बड़ा फायदा उठाया |

तब से गाँधी ज्ञान मंदिर में अब तक 500 बि.एच.एम. के शिविर चलाये | अब तक 40,000 साधकोंने इन शिविरों में भाग लिया | ध्यान योग की साधना का शिक्षण प्राप्त किया। पाठकों की जानकारी के लिए इस ध्यान योग के पाठ्यक्रम का विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जारहा है। दि. 6 दिसम्बर 1988 को इस ध्यान साधना का नामकरण किया गया । नाम रखा गया- “बेटर हेल्थ मेडिटेशन’ अर्थात् उत्तम स्वास्थ्य के लिए ध्यान |

संसार में ध्यान योग की कई पद्धतियाँ प्रचलित हैं। इन सब का लक्ष्य आत्मा और परमात्मा का मिलन है। ध्यान योग की पद्धतियों की प्रारंभिक अवस्था में मन को श्वास में लीन करना ही मुख्य है। हमारे बी.एच.एम. का आरंभ भी ऐसा ही है| यह प्रथम चरण है।

ध्यान के लिए मन की एकाग्रता आवश्यक है| मन तभी एकाग्र होगा, जब उसकी चंचलता दूर कर विचार रहित स्थिति में पहुँचेगा। इसके लिए बड़ी साधना आवश्यक है। मन की चंचलता का मुख्य कारण पाँच ज्ञानेंद्रियों की प्रवृत्तियां ही हैं। पाँच ज्ञानेंद्रियों पर नियंत्रण जब कायम होगा तब मन की चंचलता दूर हो सकेगी। एकाग्रता बढ़ेगी। यह ध्यान योग साधना का दूसरा चरण है।

तीसरे चरण में साधक अंतरंग योगांगों-प्रत्याहार तथा धारणा का अभ्यास करते हुए धीरे-धीरे ध्यान योग साधना की चरम स्थिति में पहुँचने का प्रयत्न करेंगे | यही दिव्यानंद अनुभूति की स्थिति है|

1. प्रथम चरण – श्वास पर मन को एकाग्र करने की विधियाँ

(1) साधक आराम से बैठ कर या लेट कर सांस लेते छोड़ते रहें | वे अपने दोनों नासिका रंध्रों की दीवारों से छूती हवा के स्पर्श का अनुभव करते रहें।

(2) नाक में श्वास के लेते समय उत्पन्न होनेवाली शीतलता और श्वास के छोड़ते हुए नाक में उत्पन्न होनेवाली उष्णता का वे अनुभव करें।

(3) सांस लेते समय ऑक्सीजन के रूप में जब प्राणवायु अंदर पहुँचती है तब शरीर में भर रही शक्ति का अनुभव साधक करें। जब सांस बाहर छोड़ दी जाती है तब साधक अनुभव करें कि कार्बन डाइ-ऑक्साइड के रूप में शरीर और मन की मलिनता बाहर जा रही है और शरीर तथा मन दोनों शुद्ध पवित्र हो रहे हैं।

(4) श्वास लेते हुए मन दिव्य आनंद की अनुभूति प्राप्त करें। प्रश्वास के समय अर्थात् हवा को बाहर भेजते समय साधक अनुभूति प्राप्त करें कि शारीरिक और मानसिक दु:ख, पीड़ाएँ, व्याधियाँ, दर्द तथा टेन्शन आदि कम हो रहे हैं।

(5) श्वास लेते समय साधक अनुभूति प्राप्त करें कि अच्छी आदतों, अच्छे विचार और प्रेम, मैत्री, करुणा, दया आदि सद्गुणों का विकास हो रहा है। सांस छोड़ते समय अनुभव करें कि बुरे विचार, बुरी आदतें तथा काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, ईष्या तथा अहंकार आदि दुर्गुण कम हो रहे हैं।

(6) साँस लेते समय उस साँस के साथ-साथ मन को नाक और गले से फेफड़ों में ले जावें। इसी प्रकार साँस छोड़ते समय फेफड़ों से गले और नाक के द्वारा साँस के साथ साथ मन को बाहर लावें । इस तरह साँस के साथ-साथ मन को जोड़ दें।

साधक इन छ: क्रियाओं का अभ्यास करते हुए उसमें दक्षता प्राप्त करने का प्रयास करें। इसके लिए 3 या 4 दिन लग सकते हैं। आरंभ में हर क्रिया 2 से 5 मिनट करें। प्रथम क्रिया में थोडी सफलता की प्राप्ति के बाद दूसरी क्रिया करें। दूसरी के बाद तीसरी, चौथी, पाँचवीं तथा छठी क्रिया करके सफलता प्राप्त करें।

उपर्युक्त हर क्रिया अपने आप में एक संपूर्ण क्रिया है| एक या दो या सभी क्रियाएँ की जा सकती हैं|

समय का सदुपयोग करना, एकाग्रता बढ़ाना, ध्यान योग की साधना में प्रवेश को सुलभ बनाना, बुरे विचारों को दूर करना तथा सद्विचारों की वृद्धि करना, उपर्युक्त क्रियाओं का मुख्य लक्ष्य है।

2. द्वितीय चरण – पांच ज्ञानेंद्रियों के निग्रह की क्रियाएँ

पाँच ज्ञानेंद्रियों को नियंत्रण में रखने की क्रियाओं का विवरण इस द्वितीय चरण का मुख्य विषय है। कान, जिह्वा, नाक, आँख तथा चर्म, ये पाँच ज्ञानेंद्रियाँ हैं। इन्हें नियंत्रण में रखना आवश्यक है। पर इन्हें नियंत्रित करने की विधियों का निर्धारण आज तक किसी ने नहीं किया। वर्षों के अनुभव के आधार पर हम कुछ विधियाँ निश्चित कर उनका अभ्यास कर रहे हैं| साधकों से सफलता के साथ करा रहे हैं।

एक-एक ज्ञानेंद्रिय को नियंत्रण में रखने का प्रयास करें तो धीरे-धीरे सफलता मिलेगी| साथ ही साथ वह ज्ञानेंद्रिय अपने काम में परिपक्वता प्राप्त करेगी। इससे मानसिक हलचल दूर होगी।

(1) कानों पर नियंत्रण

कानों का काम सुनना है। कोई ध्वनि बार-बार कानों को सुनाई पड़े तो मन की एकाग्रता भंग होगी। परन्तु मन का नियंत्रण कानों पर हो जाये तो मन जो सुनना चाहेगा, वही कान सुनेंगे। उदाहरण के लिये हम कोई मनपसंद गाना सुनते रहते हैं या मन पंसद व्यक्तियों से बातें करते रहते है, तब हमारे कान अन्य ध्वनियाँ नहीं सुनेंगें। इससे स्पष्ट है कि कानों को हम वश में रख सकते हैं। इसके लिए निम्नलिखित 6 विधियों को आचरण में लाना चाहिए।

(1) पहली विधि –
यह क्रिया सीधे बैठ कर करें। नाक के द्वारा जल्दी-जल्दी साँस लेते और छोड़ते हुए भस्त्रिका की भांति नाक में बड़ी ध्वनि करें। मात्र वही ध्वनि सुनें। दूसरी ध्वनि न सुनें। आरंभ में एक से दो मिनट यह क्रिया करें।

(2) दूसरी विधि –
सीधे बैठ कर धीरे-धीरे गहरी लंबी साँस नाक से लेते तथा छोड़ते हुए बड़ी ध्वनि करें। मात्र वही ध्वनि दो तीन मिनट सुनते रहें।

(3) तीसरी विधि –
यह सूक्ष्म क्रिया है। सामान्य ढंग से साँस लेते और छोड़ते रहें। इससे संबंधित कोई ध्वनि कानों को सुनायी नहीं देगी। नि:शब्द चलते इन श्वास-प्रश्वासों पर मन को एकाग्र करें। श्वास-प्रश्वास की बड़ी सूक्ष्म ध्वनि मन के द्वारा सुनने की अनुभूति प्राप्त करें। दूसरी कोई ध्वनि न सुनें।

(4) चौथी विधि –
हमारे आस-पास हमेशा कई ध्वनियाँ सुनायी पड़ती हैं। ऊँची और धीमी उन ध्वनियों को सुनते रहें। उनमें से किसी एक ध्वनि को पूरी एकाग्रता से 2 से 5 सेकंड तक सुनते रहें। एक के बाद एक ध्वनि इसी प्रकार एकाग्रता से सुनते रहें। जो ध्वनि सुन रहे हैं, केवल वही एक ध्वनि सुनें। अन्य ध्वनियों की उपेक्षा करें |

(5) पाँचवीं विधि –
आसपास की ध्वनियाँ सुनना बंद करें। केवल दूर से आती जाती ध्वनि मात्र, अर्थात् मोटर, हवाई जहाज तथा रेल आदि की ध्वनियों में से मात्र कोई एक ध्वनि 10 सेकंड तक सुनते रहें। एक-एक ध्वनि एक-एक करके ही सुनें। यह कठिन क्रिया है। धीरे-धीरे प्रयास करते हुए इस क्रिया में सफलता प्राप्त करें।

(6) छठी विधि –
दोनों कानों में दोनों अंगूठे रखें। बाहरी कोई ध्वनि सुनाई न दे। हृदय से निकलने वाली दिव्य ध्वनि सुनने का प्रयास करें। आरंभ में गुंजन जैसी ध्वनि सुनायी पड़ेगी। उसमें लीन होकर उसमें निहित दिव्य ध्वनि सुनें| प्रयास कर इस प्रक्रिया में सफलता प्राप्त करें। आरंभ में 2 से 5 मिनट यह क्रिया करें।

उपर्युक्त छ: विधियों द्वारा कानों को नियंत्रित किया जा सकता है। श्रवण शक्ति भी बढ़ेगी। दीर्घ प्रयास करें तो ब्रह्मनाद सुनायी पड़ेगा।

(2) जिह्वा पर नियंत्रण

कभी-कभी हम मनपसंद पदार्थ खाते हैं। बाद उस पदार्थ के याद आने पर उस पदार्थ के स्वाद की अनुभूति जिह्वा को सहज ही होने लगती है | ठीक इसी प्रकार इस क्रिया में खाद्य एवं पेय पदार्थों के स्वाद संबंधी अनुभूति पानी चाहिए।

दिन भर में खाये तथा पीये हुए एक-एक पदार्थ को दो-तीन सेंकड तक याद करें। बाद दो तीन सेकंड तक याद करें कि हमने वह पदार्थ कहां, कब, कैसे खाया | बाद 5 सेकंड तक उस पदार्थ के स्वाद की अनुभूति जिह्वा द्वारा प्राप्त करे। ऐसा लगे कि तब वह पदार्थ साधक के मुँह में है और वह उसका स्वाद ले रहा है। इस प्रकार एक-एक पदार्थ के लिये 10, 12 सेकंड का समय देते रहें।

इससे जिह्वा पर दो प्रकार का नियंत्रण प्राप्त होगा |

(1) खाने और पीने पर नियंत्रण प्राप्त होगा। इससे हानिकारक पदार्थों से बच सकेंगे। जिव्हा का मन काबू में रख सकेगा |

(2) जिह्वा पर नियंत्रण प्राप्त करने से वाणी मधुर होगी। फलस्वरूप दूसरों के साथ मधुर संबंध जुड़ेंगे, बढ़ेंगे।

सूचना : प्रारंभ में जब भी कोई पदार्थ मुँह में डालें तब का तब उसके स्वाद की अनुभूति करें | बाद 2-4 मिनटों के पश्चात जिव्हा पर वही स्वाद फिर से मन के सहयोग से अनुभव करें | ऐसा करते करते कुछ दिनों में उपर्युक्त क्रिया में दक्षता प्राप्त हो जायगी |

(3) नाक पर नियंत्रण

जिह्वा की तरह ही नाक पर नियंत्रण की क्रिया करनी है| दिन भर में कई प्रकार की अच्छी व बुरी गंधों का अनुभव नाक को होता रहता है| उनका अनुभव दुबारा प्राप्त करने की यह क्रिया है।

दिन भर में अनुभव की गयी एक-एक गंध को 2, 3 सेंकडों के लिए याद करें। बाद 2,3 सेंकड तक यह याद करें कि वह गंध कहाँ, कब और कैसे अनुभव में आयी। बाद 5 सेंकड तक उस गंध की अनुभूति नाक के अंदर की ग्रंथियों के द्वारा प्राप्त करें। ऐसा लगे कि गंधवाली वह वस्तु नाक के सामने है और नाक उसे सूध रही है| इस प्रकार एक-एक गंध के लिए 10, 12 सेंकड का समय देते रहें।

इससे नाक के सूघने की शक्ति बढ़ेगी तथा नाक पर मन का नियंत्रण स्थापित होगा |

सूचना : इस क्रिया में दक्षता प्राप्त करने हेतु हर गंध को अच्छी तरह से अनुभव करें तथा फिर कुछ मिनटों बाद मन के सहयोग से वैसा ही अनुभव करें |

(4) आंख पर नियंत्रण

पाँच ज्ञानेंद्रियों में आंखें अति चंचल हैं। उन पर नियंत्रण आवश्यक है| बंद आंखों पर मन को केन्द्रित करें। ऐसी अनुभूति पावें कि बंद आंखों के समक्ष एक पर्दा है| वास्तव में यह पद आंख की पलकें ही हैं।

साधक प्रयास करें कि उन पलकों के पर्दे पर निम्नलिखित विधियों में अपनी स्मृतियों के चित्रों का प्रसारण इस प्रकार करे जैसे कि पर्दे पर मानों फिल्मी चित्रों का प्रसारण हो रहा हो |

(1) उस दिन जितने चेहरे देखें हों, उनमें से एक-एक का प्रसारण पलकों के पर्दे पर करना है|

2, 3 सेकंड तक उसकी याद करते रहें। बाद 2-3 सेंकड तक याद करें कि उसे कहाँ और कब देखा। इसके बाद 5 सेकंड तक, यह अनुभव प्राप्त करें कि बंद आंखों से पलकों के पर्दे पर वह चेहरा देख रहे हैं। शुरुआत अपने ही चेहरे से करें |

(2) हर दिन कई घटनाएँ वस्तु या कार्य हम देखते रहते हैं। उनका प्रसारण एकएक करके पलकों के पर्दे पर करना है| 2,3 सेकंड उसका स्मरण करें। 2, 3 सेकंड यह भी याद करें कि उसे कब और कहाँ देखा | 5 सेकंड तक यह अनुभूति प्राप्त करें कि बंद आँखों से पलकों के पर्दे पर उसे प्रसारित होते देख रहे हैं।

(3) उस दिन पढ़े हुए अखबार, मेगज़ीन या पुस्तक आदि के पृष्ठों को एक-एक करके पलकों के पदों पर लाना है। 2, 3 सेकंड तक पढ़े हुए एक-एक पृष्ठ का स्मरण करें। बाद 2, 3 सेकंड याद करें कि उसे कब और कहाँ पढ़ा | इसके बाद 5 सेकंड तक यह अनुभूति प्राप्त करें कि बंद आंखों से पलकों के पर्दे पर उस पृष्ठ को प्रसारित होते देख रहे हैं।

सूचना : कुछ लोगों के चेहरों का, कुछ घटनाओं का तथा कुछ पृष्ठों का रोज अच्छा अवलोकन करें तथा कुछ मिनटों बाद उनकी अनुभुति को पलकों के परदों पर प्रसारित करें | ऐसा करते रहने से इन क्रियाओं में दक्षता प्राप्त हो जायेगी |

उपर्युक्त क्रियाओं से आँखों पर मन का नियंत्रण बढ़ता जायेगा | चंचलता कम होगी। देखने की शक्ति बढ़ेगी।

(5) त्वचा (चर्म) पर नियंत्रण

पाँच ज्ञानेंद्रियों में सबसे बड़ी त्वचा ही है। वह सारे शरीर को ढके रखती है। 84 लाख जीव योनियों को चर्म प्राप्त है। चर्म रहित जीव एक भी नहीं। जन्म से ही चर्म काम करने लगता है। स्पर्श के द्वारा चर्म को मालूम हो जाता है कि सर्दी है या गर्मी। नरम है या कड़ा | चर्म पर नियंत्रण पाने के लिए निम्नलिखित क्रियाएँ सहायक होती हैं। इनके द्वारा मन की चंचलता कम की जा सकती है।

(1) पंखे की हवा हमारे शरीर को लगती रहती है। यह सामान्य विषय है। इसलिए इस पर ध्यान नहीं दिया जाता। पहली क्रिया में साधक को पंखे की हवा का स्पर्श – ज्ञान पाना है। पंखे के नीचे या पंखे के पास बैठ कर चर्म को छूती हुई हवा के स्पर्श की अनुभूति प्राप्त करनी है।

केशों के द्वारा जो हवा सिर की त्वचा को लगती है उसे और कपड़ों के द्वारा जो हवा बदन को लगती है, उसका साधक अनुभव करें।

मन को पहले सिर के ऊपरी भाग पर ले जावें। केशों से होते हुए हवा सिर के चर्म को छूती है| मन को सिर पर धीमे-धीमे घुमाते हुए हवा के स्पर्श की अनुभूति प्राप्त करें। इसके बाद चेहरे के फाल, नेत्र, कान, नाक, होंठ तथा गाल आदि अवयवों को लगती हवा के स्पर्श की अनुभूति प्राप्त करें। इसके बाद गरदन, पीठ, रीढ़ की हड़ी, कमर, छाती, पेट, भुजाएँ तथा पैर आदि अवयवों से लगती हवा के स्पर्श की अनुभूति प्राप्त करें। इस प्रकार एक-एक अवयव से लगती हवा के स्पर्श की अनुभूति एक-एक कर प्राप्त करें। पंखे की हवा के अलावा रेल, बस या कार आदि में जाते समय शरीर के अवयवों को लगती हवा के स्पर्श की अनुभूति प्राप्त करें। वाहन स्वयं चलाते हों तो साधक यह अभ्यास न करें | वाहन के चालन पर ही मन केन्द्रित कर, नहीं तो खतरा हो सकता है।

(2) रीढ़ की हड़ी सीधा रख कर बैठे। शरीर को भूमि की ओर खींचती हुई गुरुत्वाकर्षण शक्ति की अनुभूति पावें। इस शक्ति की ही वजह से हर चीज भूमि की ओर आकर्षित होती है। इसी प्रकार अनुभूति प्राप्त करें कि वह शक्ति शरीर को खींच रही है। थोड़ी देर में शरीर भारी या हलका लगने लगता है। कुछ समय तक यह अनुभूति पाते रहें।

(3) हम लोग जो कपड़े पहने रहते हैं उन कपडों के स्पर्श की अनुभूति पर हम ध्यान नहीं देते। मुलायम या खुरदुरे कपड़ों के स्पर्श पर तुरंत ध्यान जाता है। इस क्रिया में जो कपड़े हम पहनते हैं उनके स्पर्श की उस समय की अनुभूति हमें पानी है। इसके लिए चर्म एवं शरीर के अवयवों में चेतना लावें तो अनुभूति तुरंत प्राप्त होगी।
पहले दोनों कंधे ऊपर-नीचे हिलाते हुए पीठ पर कपड़े के स्पर्श की अनुभूति पायें। 2,3 सेकंड के बाद कंधे हिलाना बंद कर वैसी ही अनुभूति पायें। इसके बाद दोनों कंधे आगे पीछे हिलाते हुए छाती और पेट पर के वस्त्र के स्पर्श की अनुभूति पायें कंधे हिलाना बंद करके भी वैसी अनुभूति पानी चाहिए। दायें कंधे को ऊपर नीचे हिलावें, उस पर के वस्त्र के स्पर्श की अनुभूति पायें, कुछ सेकंडो बाद हिलाना बंध कर के भी वैसी ही अनुभुति पायें। यही क्रिया बायें हाथ पर भी करें। पैर पसार कर, दायाँ घुटना ऊपर नीचे हिलाते हुए, दायें पैर के कपड़े के स्पर्श की अनुभूति पावें, घुटने हिलाना स्थगित कर भी स्पर्श की अनुभूति प्राप्त करें। इसी प्रकार बायें पैर पर भी वैसी अनुभूति प्राप्त करें।

कपड़े बदलने पर, स्नान के बाद वस्त्र से शरीर के पोंछने पर कपड़े के स्पर्श की अनुभूति पावें। अभ्यास होने पर वह अनुभूति जब चाहें तब अपने आप हो जाती है।

(4) शरीर के कई अवयव परस्पर एक दूसरे को छूते रहते हैं। प्रत्येक स्थान पर होनेवाले ऐसे स्पर्श की अनुभूति को इस क्रिया में पाना है। उदाहरण के लिये आँख से पलक, ऊपर के होंठ से नीचे का होंठ और मुँह के अंदर जीभ आदि एक दूसरे का स्पर्श करते रहते हैं। इसी तरह बैठने पर हाथ पैर कई जगहों पर एक दूसरे को छूते रहते हैं। पैरों की उंगलियाँ और हाथों की उंगलियाँ एक दूसरे को छूती रहती हैं।

इस तरह आपस में छूते दो अवयवों के बीच मन से दबाव डालें तो स्पर्श की अनुभूति स्पष्ट रूप से होगी। 2 सेंकड के बाद उस दबाव को ढीला कर उसी स्पर्शानुभूति को 2, 3 सेंकड तक पाते रहें। दायीं आंख से प्रारम्भ कर, बायें पैर की अंतिम दो उंगलियों के बीच तक एक-एक स्थान पर ऐसे स्पर्श की अनुभूति को इस क्रिया में पाना है।

(5) हमारा शरीर हमेशा उत्पन्न होते-मिटते असंख्य पुद्गलों से बना हुआ है। ये पुद्गल जहां उत्पन्न होते-मिटते हैं, शरीर के उस जगह की त्वचा में सूक्ष्म कंपन होता है। चूंकि हम कामों में लगे रहते हैं, इसलिए उस कंपन की अनुभूति नहीं पाते। इस क्रिया में वह अनुभूति पानी है।

अंधेरे में कोई चीज खोजने जब हम जाते हैं तब टार्चलाइट ले जाते हैं। उसकी रोशनी में उस चीज को खोजते हैं। यदि हम समझे कि किसी जगह पर वह चीज़ है, तो वहाँ टार्चलाइट रोक कर रखते हैं। बाद आगे बढ़ते हैं। यह ऐसी ही बहुत सूक्ष्म क्रिया है। इस क्रिया में साधक के मन की स्थिति उस टार्चलाइट की तरह होती है|

लेट कर या बैठ कर मन को पूर्ण रूप से धीरे-धीरे चर्म पर एकाग्रता से घुमाना है | तब उन-उन जगहों पर होनेवाली सूक्ष्म कंपन रूपी अनुभूतियों पर 2, 3 सेंकड तक मन को एकाग्र करना है,बाद उसे आगे बढ़ाना है| अपने को साक्षी बना कर उन अनुभूतियों पर ध्यान देना है| पहले मन को सिर के चारों ओर गोल घुमावें। उपरोक्त अनुभूति पावें। इसके बाद चेहरे, कंठ, पीठ, कमर, छाती एवं पेट पर ऐसी अनुभूतियाँ पावें। फिर यही क्रिया दोनों हाथों और दोनों पैरों पर भी करें। हर जगह मन को चक्राकार में घुमाते हुए, जहाँ कपन की अनुभूति प्राप्त हो वहाँ 2, 3 सेंकड तक मन को रोक रखें। बाद आगे बढ़ जाएँ। इस प्रकार शरीर की पूरी त्वचा पर मन घूमे और सूक्ष्म चलन की अनुभूति प्राप्त करे | अन्य क्रियाओं से यह क्रिया कठिन है।

उपर्युक्त क्रियाओं से त्वचा पर नियंत्रण पाना सुलभ होगा। योग की साधना करते समय कई रुकावटें आती हैं। ज्वार भाटे होते हैं। मच्छर काटते हैं। मक्खियाँ भिनभिनाती हैं। फिर भी योग की साधना में विध्न नहीं पड़ता। सुई के चुभने तथा उँगलियों के जलने आदि से होनेवाली पीड़ाएँ सहने की शक्ति प्राप्त होती है|

उपर्युक्त पाँच ज्ञानेंद्रियों से संबंधित प्रत्येक क्रिया अपने आप में पूर्ण है। ये आगे-पीछे और कहीं भी समय मिलने पर की जा सकती हैं। परन्तु हर दिन, निश्चित रूप से, निश्चित समय ये क्रियाएँ करते रहें तो हर क्रिया में पूर्णता अवश्य प्राप्त होगी। इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त होगा। इसके बाद आगे की साधना सरल एवं सुलभ होगी।

3. तृतीय चरण – अंतरंग योग की साधना

बेटर हेल्थ मेडिटेशन के तृतीय चरण में अंतरंग योग साधना पर ध्यान देंगे। प्रत्याहार में मन को ध्वनि रहित, विचार रहित एवं शब्द रहित रखना पड़ता है। इसके बाद धारणा के लिए साधना शुरू होती है। इस स्थिति में शरीर के विविध शक्ति केन्द्रों पर मन को एकाग्र करने की क्रियाएँ रहती हैं। यह साधना करते हुए साधक ध्यान के चरमस्तर में प्रवेश करता है|

(1) प्रत्याहार

ध्यान की विभिन्न विधियों में प्रत्याहार की विविध विधियों का उल्लेख किया गया है | मन को विचार रहित रखना इसमें मुख्य विषय है| विविध प्रकार के भावों एवं विचारों से मन को दूर रखना है। शरीर निश्चल रहे और मन विचार रहित और प्रशांत रहे, यही प्रत्याहार कहलाता है।

मन को विचार रहित रखना चाहें तो क्या करें? इस प्रश्र का सही उत्तर अभी तक नहीं मिला। वर्षों के अपने अनुभव के आधार पर हम निम्नलिखित क्रम निर्धारित कर सफलतापूर्वक अमल में ला रहे हैं।

अचानक बिजली चली जाये तो अंधेरा छा जाता है| फिर बिजली आ जाये तो अंधेरा मिट जाता है| इससे स्पष्ट है कि अंधेरे के पहले प्रकाश है और अंधेरे के बाद भी प्रकाश है। इसी तरह एक विचार जब समाप्त होता है तब मन विचार रहित होता है। नया विचार जब तक उत्पन्न नहीं होता तब तक यह स्थिति रहती है| इससे स्पष्ट है कि विचार-विमर्श के बीच एक क्षण ही सही विचार रहित स्थिति बनती है| साधक को चाहिए कि एक विचार और दूसरे विचार के बीच मन को विचार रहित स्थिति में ज्यादा देर तक रखें। जितना समय साधक विचार को रोक कर रख सकेगा उतना समय प्रत्याहार कहलाएगा | यह श्रम से प्राप्त होने वाली कठिन स्थिति है।

विधि –
बैठ कर या लेट कर शरीर को संपूर्ण विश्राम की स्थिति में रखें। श्वास पर मन को केन्द्रित करें। श्वास पर जब मन एकाग्र होगा तब धीरे-धीरे मन से अन्य विचार समाप्त हो जायेंगे। थोड़ी देर श्वास पर मन को एकाग्र करने के बाद, श्वास संबंधी विचार को भी समाप्त करना है। यही पूर्ण रूप से विचार रहित स्थिति है। अभ्यास के समय बीच-बीच में कोई न कोई विचार उठता ही रहता है| साधक को इसी समय दृढ़ रहना चाहिए। हर विचार के समाप्त होते ही हर बार विचार रहित शून्य स्थिति को बढ़ाना चाहिए। यह आवश्यक है कि इस स्थिति में मन पूर्ण रूप से जागृत रहे तो ही विचार रहित स्थिति होती है। यह तंद्रा तथा निद्रा की स्थिति नहीं है। मस्तिष्क की निष्क्रियता को स्थिति भी नहीं है।

रोज़ थोड़ी देर इसका अभ्यास अवश्य करें। संपूर्ण योग शास्त्र में यह अत्यंत कठिन स्थिति है। ब्लैक बोर्ड पर कुछ लिखना चाहें तो पहले पोंछ कर साफ किया जाता है| इसी तरह मन को एकाग्र करने के पहले उसे साफ करना आवश्यक है। प्रत्याहार की साधना यही है| सारांश यह कि प्रत्याहार के द्वारा मन को साफ करना है।

(2) बेटर हेल्थ वकोन्सन्ट्रेशन-धारणा

धारणा का अर्थ है एकाग्रता | बिना एकाग्रता के हम किसी भी कार्य में सफलता नहीं पा सकते। खाना-पीना, पढ़ना-लिखना, बोलना-सुनना या ऐसे प्रत्येक काम में मन का सहयोग आवश्यक है।

विविध ध्यान परंपराओं में धारणा एवं एकाग्रता के कई उपाय बताये जाते हैं। जैसे – त्राटक क्रियाएं, मंत्र जप, श्वास पर मन केन्द्रित करना, किसी चित्र तथा मूर्ति के सामने बैठ कर उस पर मन को एकाग्र करना आदि।

हमारे इस ध्यान साधना कार्यक्रम में धारणा की निम्न पद्धतियाँ अमल में लायी जाती है।

विविध प्रवृत्तियाँ मनुष्य शरीर के अनेक स्थानों तथा केन्द्रों से संबंध रखती हैं। ऐसे स्थानों तथा केन्द्रों का शोध कर हमने निम्नलिखित चार शक्ति केन्द्रों का निर्णय किया है :-

(1) शारीरिक शक्ति केन्द्र नाभि है। यहाँ उत्पन्न होनेवाली प्राण शक्ति यहाँ से आरंभ होनेवाली 72000 नाड़ियों द्वारा सारे शरीर में व्याप्त होती है।

(2) गले में जो गढ़ा है, उसमें विचार उत्पन्न होते हैं। यहां से मनोवाहा नाड़ी के द्वारा ये विचार मस्तिष्क में पहुँचते हैं। गले का गढ़ा अर्थात् कंठ कूप हमारी मानसिक शक्तियों का विकास केन्द्र है।

(3) हमारी दोनों आँखों के बीच में भूकुटि है। यह हमारी मेधा व बौद्धिक शक्ति का विकास केन्द्र है। यह आज्ञाचक्र भी कहलाता है। यह हमारी सभी प्रवृत्तियों को निर्देशित करता है। यही हमारी बुध्दि के विकास का केन्द्र है |

(4) आत्मा का मुख्य निवास स्थल छाती में स्थित हृदय गुफ़ा है| यह हृदय कमल कहलाता है। यही आत्मा से संबंधित आध्यात्मिक शक्ति के विकास का केन्द्र है |

उपर्युक्त चारों स्थानों तथा केन्द्रों पर मन को एकाग्र करते रहें तो साधक की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक प्रगति का आरंभ होता है।

उत्तम स्वास्थ्य के लिए धारणाभ्यास तीन स्तरों में होता है।

प्रथम स्तर

प्रथम स्तर में भूकुटि, गले के नीचे का कंठकूप, छाती के बीच का हृदय कमल तथा नाभि पर मन को एकाग्र करना आवश्यक है| इन केन्द्रों के अस्तित्व को मन कुछ समय लगातार अनुभव करता रहे, यही प्रथम स्तर है।
विधि
(1) लेट कर या बैठ कर दायें हाथ की तर्जनी से भूकुटि का कुछ सेकंड तक स्पर्श करें। तब स्पर्श की अनुभूति होगी। उंगली को वहाँ से हटा कर भी स्पर्श की अनुभूति पाते रहें। इस अनुभूति को बौद्धिक शक्ति केन्द्र पर मन को केन्द्रित करना कहते हैं।

(2) दायें हाथ की तर्जनी से गले में स्थित कंठ कूप का स्पर्श धीरे से कुछ सेकंड तक कर, स्पर्श की अनुभूति प्राप्त करें। कुछ सेकंडों के बाद उँगली हटा कर स्पर्श की वैसी ही अनुभूति पाते रहें। इसे मानसिक शक्ति केन्द्र पर मन को एकाग्र करना कहते हैं।

(3) दायें हाथ की पाँचों उँगलियों का संपुट बनावें और उससे छाती के बीच के गढ़े का स्पर्श करें और स्पर्श की अनुभूति प्राप्त करें। उँगलियों का संपुट हटा कर भी स्पर्श की अनुभूति प्राप्त करते रहें। इसे आध्यात्मिक शक्ति केन्द्र पर मन का एकाग्र होना कहते हैं।

(4) पांचों उँगलियों के संपुट से नाभि का धीरे से स्पर्श करें और स्पर्श की अनुभूति पावें। उँगलियों का संपुट हटा कर भी स्पर्श की अनुभूति प्राप्त करते रहें। इसे शारीरिक शक्ति विकास केन्द्र पर मन का एकाग्र होना कहते हैं।

कुछ दिनों के अभ्यास के बाद उँगलियों के स्पर्श की आवश्यकता नहीं पड़ती। सीधे मन के द्वारा उन केन्द्रों की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है। आरंभ में एक-एक केन्द्र का अभ्यास 2-3 मिनटों तक करें। यह अभ्यास 3, 4 बार दुहराएँ। जिस केन्द्र की शक्ति ज्यादा आवश्यक हो उस शक्ति केन्द्र पर ज्यादा देर तक अभ्यास करें।

द्वितीय स्तर

मन को एकाग्र करने की प्रथम स्तर की क्रियाएँ करते हुए उस प्रयत्न में सफलता प्राप्त करते हुए, द्वितीय स्तर में प्रवेश करें। उपर्युक्त चार केन्द्रों में विशेष अनुभूतियाँ मन के द्वारा प्राप्त करने का प्रयास करना है|

(1) भूकुटि का संबंध बुद्धि से रहता है। बुद्धि का संबंध ज्ञान से है। ज्ञान को प्रकाश भी कहते हैं। प्रकाश सूर्य से प्राप्त होता है। भूकुटि पर मन को केन्द्रित करते हुए वहाँ सूर्योदय की अनुभूति प्राप्त करनी है। कुछ दिनों के अभ्यास के बाद सौम्य सुनहरे गुलाबीरंग से भरी सूर्योदय की अनुभूति होती है| यह अनुभूति प्राप्त करें कि सूर्य की सुनहरी किरणों का प्रसार भूकुटि एवं फाल पर हो रहा है।

(2) गले के निचले गढ़े में मानसिक शक्तियां केन्द्रित रहती हैं। मन का संबंध आनंद से रहता है। धान के खेतों का हरा-रंग आनंद का प्रतीक है| मन को कंठ कूप पर केन्द्रित करते हुए कंठ भर में आनंद को सूचित करनेवाले हरे रंग के रिब्बन की अनुभूति प्राप्त करने का प्रयत्न करें।

(3) आध्यात्मिक शक्ति आकाश की भांति अनंत और असीमित है| मन को हृदय कमल पर केन्द्रित करते हुए अनुभूति पानी है कि छाती भर में आकाश का रंग आसमानी रंग व्याप्त हो रहा है।

(4) आग शारीरिक शक्ति का प्रतीक है| मन को नाभि पर एकाग्र करते हुए उसके चारों ओर अग्नि जैसे लाल गोल चक्र की अनुभूति प्राप्त करें।

यह अनुभूतियाँ कुछ दिनों के अभ्यास के बाद प्राप्त होती हैं। आरंभ में अनुभूति प्राप्त न हो तो भी निराश नहीं होना चाहिए। अभ्यास करते रहना आवश्यक है।

तृतीय स्तर

यह उपर्युक्त बौद्धिक, मानसिक, आध्यात्मिक तथा शारीरिक शक्त्तियो को परमात्मा की परमशक्ति से मिलानेवाली विधि है | इन केन्द्रों में परमात्मा के सर्वव्याप्त प्रतीक ॐ चिह्न की अनुभूति प्राप्त करनी है।

(1) भूकुटि में सूर्योदय की अनुभूति हो, उसके मध्य आधा इंच ऊंचे तेजस्वी लाल रंग के ॐ चिह्न की अनुभूति पावें | यह बौद्धिक शक्ति का परमशक्ति से मिलन कहलाता है।

(2) सारे कंठ में आनंद से भरे हरे रंग की अनुभूति प्राप्त करें। फिर कंठ के मध्य एक इंच ऊंचे घने हरे रंग के ॐ चिह्न की अनुभूति प्राप्त करें। यह मानसिक शक्ति का परम शक्ति से मिलन कहलाता है।

(3) छाती में आसमानी रंग की अनुभूति पाते हुए हृदय कमल में दो इंच ऊंचे घने नीले रंग के ॐ चिह्न की अनुभूति प्राप्त करें। यह आध्यात्मिक शक्ति का परम शक्ति से मिलन कहलाता है।

(4) नाभि की चारों ओर तेज लाल गोल चक्र के बीच आधा इंच ऊंचे घने भूरे (ब्राऊन) रंग के ॐ चिह्न की अनुभूति प्राप्त करें। यह शारीरिक शक्ति का परम शक्ति से मिलन कहलाता है|

यह अनुभूति दोनों दिशाओं में पा सकते हैं कि मानों ऊँ चिह्न को शरीर के भीतर से बाहर देख रहे हों या उसे बाहर से भीतर देख रहे हों।

उपर्युक्त क्रियाओं में ॐ चिह्न के बदले और कोई चिह्न, जैसे स्वस्तिक या अर्धचन्द्राकार या क्रास या मनचाहा चिह्न अपना कर उसका उपयोग कर सकते हैं | परमात्मा के किसी स्वरूप में पूर्ण श्रद्धा हो तो उस शक्ति स्वरूप चित्र का भी प्रयोग ॐ के स्थान पर कर सकते है |

बी.एच.एम. के द्वारा प्रस्तुत ध्यान योग की एकाग्रता से संबंधित उपर्युक्त क्रियाएँ करते हुए साधक अपनी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करते हुए ध्यान की चरम स्थिति में पहुँचने का अवश्य प्रयत्न करें, यही हमारा निवेदन है।

(3) उत्तम स्वास्थ्य वे? लिए ध्यान की चरम स्थिति

इसके पूर्व हमने सूचित किया कि ध्यान की कई पद्धतियाँ प्रचलित हैं। उनमें बेटर हेल्थ मेडिटेशन यानी, ध्यान साधना की अलग विशेषता है। इसमें दो स्थितियाँ होती हैं।

(1) मन और आत्मा का मिलन अर्थात् मन से आत्मा का स्पर्श |

(2) आत्मा और परमात्मा का मिलन अर्थात् आत्मा का परमात्मा में लीन हो जाना |

पहली स्थिति के लिए अभ्यास आवश्यक है। दूसरी स्थिति संपूर्ण साधना का फल है। इसके लिए अधिक समय लगता है|

बेटर हेल्थ मेडिटेशन के पाठ्यक्रम में पहली स्थिति का अभ्यास ही अंतिम सोपान है।

सामान्यतया शरीर भर में आत्मा की चेतना की अनुभूति होती रहती है। आत्मा का मुख्य निवास स्थल छाती के मध्य जो गढ़ा है, उस हृदय कमल के ठीक पीछे, छाती और पीठ के ठीक बीच में है| उस हृदय गुफा में मन के द्वारा सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्मानुभूति प्राप्त करना ही इस पाठ्यक्रम का मुख्य लक्ष्य है|

जब कोई चीज हम खोते हैं, तब अंधेरे में उसे खोजने के लिए टार्चलाइट लेकर निकल पड़ते हैं। इसी तरह मन को हृदय कमल से होते हुए अंदर प्रवेश कर ओर तथा चारों ओर मन को घुमाना पड़ेगा। इस अन्वेषण के क्रम में अतिसूक्ष्म आत्मस्पर्श की अनुभूति मन को होगी। यह अनुभूति दीप की कांति सी रहेगी। विभिन्न साधकों को, नीला, हरा, लाल, सुनहरा या श्वेत आदि विभिन्न रंगों की अनुभूति होगी। अभ्यास करते समय आरंभ में यह अनुभूति 1, 2 सेंकड तक ही रहेगी। निरंतर अभ्यास करने पर अधिक समय तक यह अनुभूति स्थिर रहेगी। आत्मा का स्पर्श जब मन से होगा, तब साधक का सारा अस्तित्व दिव्य अनुभूति पाना शुरू करेगा। कानों में दिव्य संगीत की ध्वनि सुनायी पड़ेगी। जिह्वा दिव्य स्वाद का अनुभव करेगी। नाक दिव्य सुगंध का अनुभव करेगी। आँखों के समक्ष दिव्य प्रकाश होगा। दिव्य स्पर्श के सुख का अनुभव त्वचा को होगा। यह दिव्य अनुभूति साधक पा तो सकेगा, पर उसका विवरण बता नहीं सकेगा |

संत कबीरदास वेरु शब्दों में

अर्थात् आत्मानुभूति संबंधी ज्ञान के बारे में कोई पूछे तो कोई भी कैसे बताएगा ? गूंगा गुड़ खाकर उसका स्वाद कैसे बतायेगा ?

पद्धति –
साधक लेटे या रीढ़ की हड़ी को सीधा कर बैठे। श्वास पर मन को एकाग्र करे। जब एकाग्रता स्थिर होने लगे तब मन को हृदय कमल पर केन्द्रित करे। प्रयत्न करते हुए मन को छाती में उतारे। जिस प्रकार पिन या इंजेक्शन की सुई शरीर में उतरती है, उसी प्रकार मन को हृदय में पिरोने की यह क्रिया है। मन को पूर्णरूप से प्रशांत बनावें और ऊपर उल्लिखित विवरण के अनुसार आत्मान्वेषण आरंभ करें। प्रारंभ में कुछ सेकंड तक ही यह अनुभूति संभव है। फिर भी अन्वेषण करते हुए आगे बढ़ना आवश्यक है|

आरंभ में 5 से 10 मिनट तक साधना करें | इसके बाद साधना के समय को धीरे-धीरे एक घंटे तक बढ़ावें।

साधना के समय शरीर को स्थिर रखें | उसे हिलने न दें। शरीर जितना हिलेगा, मन भी उतना ही हिल जायेगा। अत: एकाग्रता से धीरे-धीरे साधना दृढ़ करें।


साधना करते समय मन को अनेक विभागों में विभाजित कर कई क्रियाएं एक साथ करने की शक्ति साधक को प्राप्त होगी। समय-समय पर ये क्रियाएं करते हुए 24 घंटे साधक को उन क्रियाओं में लीन होकर समय का सदुपयोग करना चाहिए।

श्वास पर ध्यान को केन्द्रित करना, इंद्रियों को नियंत्रण में लाना, प्रत्याहार एवं धारणा का अभ्यास करते हुए ध्यान साधना में सफल होना, साधक की श्रद्धा, उसके विश्वास और उसके नियमबद्ध अभ्यास पर निर्भर रहता है|

हमारा पाठकों से विनम्र निवेदन है कि बेटर हेल्थ में डिटेशन की मुक्त होकर जिस प्रकार आध्यात्मिक साधना कर रहे हैं उसी प्रकार यह साधना करते हुए अपने जीवनकाल में ही परमात्मा से मिलन के अंतिम लक्ष्य की पूर्ति के लिए इस योग साधना की चरम स्थिति में पहुँच कर अपना जीवन चरितार्थ करें।